मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

तन्हाई





तन्हाई...नहीं होती मूक!
होती है मुखर ,
अत्यंत प्रखर!
उसकी अपनी भाषा है
अपनी बोली है!
जन्मती है जिसके भी भीतर
ललकारती है उसे!
करती है आर्तनाद
चीखती है चिल्लाती है!
करती है यलगार
शोर मचाती ,लाती है झंझावात
अंतरद्वंद करती
रहती झिंझोड़ती हर पल !
और करती है उपहृत
व्याकुलता, वेदना, लाचारी और तड़प !
बनाती है धीरे -धीरे उसे अपना ग्रास!
ज्यों लीलता है सर्प,
अपने शिकार को शनै शनै!
ओढाती है मुस्कुराहट का आन्चल
लोगों को वह रूप दिखाने को!
जो उसका अपना नहीं,
बल्कि छीना गया है
अपने ही पोषक से!

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पाठक की टिप्पणियाँ किसी भी रचनाकार के लिए पोषक तत्व के समान होती हैं ।अतः आपसे अनुरोध है कि अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों द्वारा मेरा मार्गदर्शन करें।☝️👇