सोमवार, 5 जून 2017

धरती की पुकार

पाताल में समाने को बेताब है धरा।
आँखों में करुणा विगलित अश्रु है भरा।
हृदय से उसके निकलती एक ही धुन।
हे मनुज, मेरी करुण पुकार तो सुन..

"तूने ऐसे कर्म किए!
बचा नहीं कुछ भविष्य के लिए!
जो कुछ मैंने तुझे दिया!
गलत उसका उपयोग किया!

थी मैं कभी नई दुल्हन - सी!
 हो गयी आज जर्जर, गुमसुम - सी!
मेरी अंतिम साँस भी उखड़ रही है!
हालत प्रतिदिन बिगड़ रही है!

मुझको न तू इतना सता!
मुँह खोल और यह तो बता!
माता पुत्र का क्या  है नाता !
क्या ये तुझको नहीं पता !

क्या मैं तेरी माँ नहीं!
या तू मेरा पुत्र नहीं!
मेरी ऐसी हालत है!
पर तुझकॊ कोई फिकर नहीं!

मैंने कई इशारे किए!
कहीं सुनामी, कहीं जलजले!
और कहीं भूकंप दिए!

पर तुझकॊ समझ ना आया है!
घमंड अभी भी छाया है!

हो चुका है अब तू  हृदयहीन!
मैं भी हो गई हूँ सबसे खिन्न!
मन तो ये करता है मेरा!
कर दूँ तुझकॊ छिन्न भिन्न!

हो गई हूँ अब मैं भी क्रूर!
तूने कर डाला मजबूर!
छाया है जो तुझे गुरूर!
करूंगी उसको चकनाचूर!

अब मैं तुझको बतलाउंगी!
सबक तुझे मैं सिखलाउंगी!
अब मैं जीना छोड़ दूँगी!
तुझकॊ भी अब ले डूबूंगी!"




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

पाठक की टिप्पणियाँ किसी भी रचनाकार के लिए पोषक तत्व के समान होती हैं ।अतः आपसे अनुरोध है कि अपनी बहुमूल्य टिप्पणियों द्वारा मेरा मार्गदर्शन करें।☝️👇